जीवित्पुत्रिका व्रत के साथ जुड़ी है जीमूतवाहन की कथा :- अशोक विश्वकर्मा

वाराणसी |      जीवित्पुत्रिका व्रत संतान के दीर्घ जीवन , स्वास्थ्य , सुख समृद्धि की कामना के लिए रखा जाता है यह व्रत पर्व आश्विन मास की कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को करने की परंपरा है पौराणिक कथा के अनुसार गन्धर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन बड़े उदार और परोपकारी थे जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज – पाट में नहीं लगता था वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी दूर निकल गए उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा आज उसके बजाय मैं स्वयं जाउंगा़ यह कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य – शिला पर लेट गए नियत समय पर गरुड बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्य में पड़ गए उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया गरुड उनकी बहादुरी और दूसरो की प्राण – रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए प्रसन्न होकर गरुड ने उनको जीवन – दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया   |