विश्वकर्मा भगवान कौन थे


भाग १ ……. 

विश्वकर्मा भगवान के बारे में हमारे कई प्राचीन ग्रंथो , उपनिषद एवं पुराणो में पाएंगे कि आदि काल से ही विश्वकर्मा भगवान्शि अपने ज्ञान एवं विज्ञान के कारण मानव ही नही अपितु देवगणों में भी पूजे जाते थे , भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी , लंकापुरी , आदि कई निर्माणो का अवलोकन किया गया है और तो और देवताओ के लिए पुष्पक विमान तथा सभी देवी देवताओ के भवन, अस्त्र और शस्त्र व उनके दैनिक उपयोगी होने वाले वस्तुएं विश्वकर्मा भगवान द्वारा ही बनाया गया है यहां तक की दानवीर कहे जाने वाले कर्ण का कुण्डल, भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, भगवान शंकर का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है ।

कई ग्रंथो की माने तो भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया , तो वही विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया और उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया । 

उसके बाद संसार के प्रलय के लिये शंकर भगवान की उत्पत्ति की और उन्हें डमरु, कमण्डल और त्रिशूल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर तीसरा नेत्र भी प्रदान कर  शक्तिशाली बनाया , इनके साथ साथ देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी , राग – रागिनी और ज्ञान की देवी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया ।

हमारे धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन किया गया है ।

विश्वकर्मा वंश का विस्तार कैसे हुआ  …… 

सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ,शिल्पशास्त्र  के प्रणेता बने भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रूप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है, शिल्पो कें आचार्य ने मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस, काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिष्ठाता  मनु , मय , त्वष्ठा , शिल्पी एंव दैवज्ञा के रूप में जाने गये जो सभी ऋषि वेंदो में पारंगत थे ।

कन्दपुराण के अनुसार भगवान विश्वकर्मा पंचमुख है जिनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये गए है जिनके नाम इस प्रकार है  मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ ।

विश्वकर्मा वंशजो के गोत्र  ……  

भगवान विश्वकर्मा के पांचो ऋषि पुत्रों की अलग अलग विशेषता है जो इस प्रकार है 

१.. ऋषि मनु  ” सानग “ गोत्र के कहे जाते है जिनका वंशज लोहे के कर्म के जानकार थे जिन्हे लोहकार के रूप में जाना जाता है  | 

२… सनातन ऋषि मय ” सनातन ” गोत्र के कहे जाते है जिनका वंशज बढ़ई ( लकड़ी ) के जानकार थे इसलिए इन्हे बढ़ई के रूप में जाना जाता है  | 

३…..  अहभून ऋषि ( त्वष्टा ) इनका ” अहंभन ” गोत्र है इनके वंशज ताम्रक (तांबे ) के जानकार थे जिनको त्राम्रकार ( ठठेरा ) के रूप में जाना जाता है  | 

४…..  प्रयत्न ऋषि ( शिल्पी ) इनका दुसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र ” प्रयत्न ” है इनके वंशज शिल्पकला के जानकार थे जिन्हे संगतराश के रूप में भी जाना जाता है 

जो मूर्तिकार के रूप में जाने जाते है | 

५…..  देवज्ञ ऋषि इनका गोत्र  ” सुर्पण ” है इनके वंशज रजत , स्वर्ण धातु के जानकार थे जिन्हे स्वर्णकार के रूप में जाना जाता है | 

भगवान विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं , मनु , मय, त्वष्ठा , शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादि संसार का निर्माण कार्य  करते है तथा घर ,मंदिर एवं भवन , मुर्तिया आदि को बनाने वाले एवं अलंकारों की रचना करने वाले है जिनकी सारी रचनाये लोकहितकारी  हैं  इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है इनके बिना कोई भी यज्ञ सफल नहीं हो सकता ऐसा ग्रंथो में माना गया है |

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