हिन्दी का सच्चा सेवक कोई है तो वो हैं आर्यावर्ती :- चंद्रवीर

मुंबई |      आज हम एक ऐसे व्यक्तित्व के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं जो बहुमुखी प्रतिभा संपन्न होते हुए भी अपनी प्रतिभा को न्याय नहीं दे सका जिस तरह आठवीं शताब्दी के मूर्धन्य विद्वान बाणभट्ट बहुमुखी प्रतिभा संपन्न होते हुए भी अपनी कोई कृति पूर्ण नहीं कर सके यहां तक कि उनकी कादंबरी कथा साहित्य का उत्तरार्ध उनके पुत्र को पूरा करना पड़ा उनके द्वारा लिखित अधूरे हर्ष चरित्र से इतिहास कई तथ्य ले पाता है वैसा ही कुछ चरित्र हमारे आज के इस व्यक्तित्व में भी परिलक्षित होता है लोग कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है इन्हें देख कर इस बात को सच मान लेने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं शायद बहुमुखी प्रतिभाओं मे एकाग्र न हो पाने का दोष होता हो जी हां हम बात कर रहे हैं हिंदी वांग्मय में भारतीय सांस्कृतिक चेतना के सनातन संवाहक योगेश सुदर्शन आर्यावर्ती के बारे में वे स्वभाव से शिक्षक हैं उनके मौन में शिक्षा उनकी कंठध्वनियों की विस्फोट में शिक्षा और उनके आधे अधूरे लेखन कार्य में केवल शिक्षा का समावेश होता है उनका कथन है कि सीखे बिना यात्रा के निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है    |

आर्यावर्ती का जन्म उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले में इमलो पान्डेय पट्टी नामक छोटे से गाँव में षष्ठी तिथि , दिन बुधवार , कृष्ण पक्ष जेष्ठ मास में शक संवत १८९८ में हुआ था इनके पिता संकठा प्रसाद मिश्र आधुनिक शिक्षा से संपन्न जन्मजात वेदांती हैं जिनकी गुरुत्तर ज्ञान चरित्र का प्रभाव आर्यावर्ती में परिलक्षित होता है रूप की सृष्टि में भ्रमित दुनिया सौंदर्य के सच से बहुत दूर है ऐसा वे अक्सर कहते हैं जब इसे समझने के लिए व्याख्या का आग्रह किया जाता है तो वे अपने ही जीवन प्रसंग के स्मृति विशेष की अग्निकांड में खो जाते है आर्यावर्ती की माता राधादेवी , अतीव शुभ्रवर्णा और रूपसी थी किंतु जब वे शैशव अवस्था में थे तब उनकी माता अग्निकोप से पीड़ित होकर अपना रूप खो बैठीं वे बेहद जल गयीं थी अपने कुरूप मुख को देखकर उन्हें अथाह दुख होता था और लगता था कि उनके पति इस कुरूपता के कारण उनका परित्याग कर देंगे यद्यपि वे उन्हें धीरज देते हुए कहते मैं अब भी तुममें वही रूप देखता हूँ तुम्हारे रक्त के हर बूंद में तुम्हारा रुप सुरक्षित है अपना रुप निहारने के लिए दर्पण मत देखो अपनी संतान को देखो सब कितने सुदर्शनीय हैं मेरे लिए तुम्हारा होना ही संतोष का कारण है जिस रूप को बुढ़ापे में खोना था तुमने अब खो दिया देखना बिगडा़ रूप अवस्था के साथ साथ सँवर जायेगा रूप के छल का खेल शाश्वत है   |

हुआ भी वैसा ही आर्यावर्ती के बाद उन्हें एक सुंदर भाई और दो बहनें हुई नागेश , चंदन और वंदन इनका बचपन माटुंगा लेबरकैंप की घनी मजदूर बस्ती में चार वर्ष तक बीता नानी की गोंद और नाना की सुरक्षा में बीता शैशव दरिद्रता में राज वैभव की संस्मृति और ऐश्वर्य से समृद्ध हुआ शैशव दरिद्रता और वैभव का भेद नहीं जानता शैशव हर जातक के जीवन का समृद्धतम कालखंड होता है आर्यावर्ती का कथन है शैशव की पूँजी मनमोहन मुस्कान है , कौतुहल , उल्हास और उत्साह है इच्छा के संक्रमण से हम अपनी दिव्य पूँजी गँवा बैठते हैं भविष्य से लापरवाह जीवन को उसके आते पदचापों की आहट का अनुमान नहीं होता इसलिए घटनाएँ अप्रत्याशित रूप से घटती जाती है आर्यावर्ती का बाल जीवन ऐसी ही अप्रत्याशित घटनाओं का ढेर है जीवन केवल संबंधों के परिचय पाने से जूझता चल रहा था इसका भेद तो बहुत बाद में खुला जब उन्होंने जाना कि संबंध जीवन प्रवाह में बुलबुले की तरह है जिनकी उपयोगिता काल विशेष के क्षुद्र उपखंड मात्र तक सीमित होती है यद्यपि वे अपनी शिक्षा दीक्षा के संघर्ष की चर्चा भी विधान की अव्यवस्था के आलोचना रूप में करते हैं तथापि सारांश में इतना ही कहा जा सकता है कि उन्होंने स्नातकोत्तर तक पढ़ाई करने के बाद बृहन्मुंबई महानगर पालिका के माध्यमिक शिक्षण विभाग में सहायक शिक्षक के रूप में सेवारत है    |

इनका कुटुबं बड़ा है इतना बड़ा कि उनकी चेतना में एक ही वैदिक मंत्र अनुगूँजित होता रहता है वसुधैव कुटुंबकम तथापि उनके अनुज नागेश अंग्रेजी विषय के शिक्षक हैं और वे जयहिंद ज्युनियर कॉलेज में सेवारत हैं दो बहने हैं चंदन और वंदन इनके अतिरिक्त उनके काका – काकी विष्णु चंद्र मिश्र और माया से भी दो अनुज और एक अनुजा , अतुल , विपुल और अंजली है काका काकी पैतृक गाँव में ही निवास करते हैं आर्यावर्ती के जीवन को सँवारने में नाना – नानी , मंगला और श्यामा देवी का बहुत बड़ा हाथ है उन्हें तीन मामा और पाचों बुआ क्रमश: राजाराम , सियाराम , शशिकांत और सत्ती , विद्या , विमला , मैना और निर्जला ने भी अपनेपन के गुण से समृद्ध किया है उनके बाल सखा विशेष नारायण मिश्र चित्रकूट में तुलसीदास पीठ के कुलपति रामभद्राचार्य के दिव्यांगलांग विश्वविद्यालय में संगीताचार्य के पद को सुशोभित करते हैं आर्यावर्ती की अर्धांगिनी श्वेता उनके जीवन की सच्ची सहचरी हैं वे उच्च शिक्षा से भूषित होकर भी कौटुंबिक सेवाओं को समर्पित श्री कृष्ण तुल्य दांपत्य के रथ की सारथी होकर साधारण गृहणी की तरह लगती हैं इनके सात और पाँच वर्ष के एक पुत्र मुकुंद और पुत्री शिवा जीवन के उन्नति की प्रेरणा की तरह हैं मित्रों की चर्चा करते वे नहीं अघाते किंतु जिन्हें वे बहुत अधिक याद करते हैं उनमें डॉ. मनोज दुबे , डॉ. प्रवीणचंद्र विष्ट , डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय , दिनेश उपाध्याय , नवनाथ तिवारी , श्रीकांत यादव , राजेश रहांगडाले और शिक्षाविद् चंद्रवीर बंशीधर यादव को चेतना के सहचर और सतत उत्प्रेरक तथा प्रोत्साहक के रूप में याद करते हैं इस व्यक्तित्व की चेतना को ठीक ठीक जानने के लिए चार पीढ़ी के कवि इस काव्य संग्रह को जरूर पढना चाहिए जिसमें वे प्रेम , आत्मा और सभ्यता के विविध आयामों को परिचित करवाते है    |