भारत की साहित्य परम्परा पर संगोष्ठी के साथ कविगोष्ठी संपन्न

ठाणे  | भारतीय जन भाषा प्रचार समिति ठाणे (बहुभाषी काव्य गोष्ठी) एवं अखिल भारतीय साहित्य परिषद के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक 27 अप्रैल 2019 शनिवार को मुन्ना विष्ट कार्यालय सिडको बस स्टॉप ठाणे में हिन्दी साहित्य के इतिहास “भारत की साहित्य परम्परा” पर परिचर्चा के उपरांत मुंबई महानगर से पधारे हुए कवियों की सजी महफ़िल ।
उक्त कार्यक्रम की रूपरेखा एवं संचालन अखिल भारतीय साहित्य परिषद के सचिव संजय द्विवेदी ने किया।यह कार्यक्रम दो सत्रों में विभक्त हुआ,प्रथम सत्र में भारत की साहित्य परम्परा पर विचार संगोष्ठी फिर कविगोष्ठी। प्रथम सत्र की अध्यक्षता आर• एल• सिंह (भूतपूर्व प्रधानाचार्य मंगला हाई स्कूल),मुख्य अतिथि के रूप में  डाॅक्टर दिनेश प्रताप सिंह (महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत एवं अखिल भारतीय साहित्य परिषद राष्ट्रीय मंत्री),विशेष अतिथि के रूप में  श्रीमती आभा दवे जी उपस्थित रही ।
डाॅक्टर दिनेश प्रताप सिंह ने भारत की साहित्य परम्परा पर प्रकाश डालते हुए कहा श्रीमद्भभगवत ता,उपनिषद,तुलसीदास कृत रामचरितमानस,वाल्मीकि रामायण में जिस तरह से साहित्य को दर्शाया गया है आज उस प्रकार से साहित्य की विधा विलुप्त होती जा रही है , गीत,कविता,गज़ल,सोरठा,छंद, चौपाई एवं दोहा जो भी व्याकरण बद्ध कर लिखा जा रहा है वह शिक्षाप्रद होने चाहिए ।
जिस प्रकार  भ्रमरगीत में उद्धव-गोपी संवाद,कनुप्रिया में राधा-कृष्ण के चरित्र चित्रण धर्मवीर भारती ने किया है वैसे साहित्य को आज लिखने की आवश्यकता है अभिनव गुप्त साहित्य उच्च कोटि का साहित्य माना जाता है जो मलयालम भाषा में ही वर्णित थी जिसे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी ने संस्कृत में अनुवाद किया जो आज भी संस्कृत में उपलब्ध है उस साहित्य विधा को अपनाने की आवश्यकता है ।
पुरातन साहित्य को 90 के दसक से भुलवाया गया जिससे हिन्दी साहित्य की अस्मिता पर बहुत बुरा असर पड़ा है हमें उस पर विचार करने की आवश्यकता है अखिल भारतीय साहित्य परिषद के सचिव संजय द्विवेदी ने भी साहित्य छंद विधा पर बखूबी प्रकाश डाला एवं डाॅक्टर राज बुंदेली जी ने भी आज के साहित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जो भी लिखा जाय एक कहानी,एक दिशा,एक उद्देश्य को आधार बनाकर साहित्य को छंदोबद्ध करते हुए लिखे जायें ।
द्वितीय सत्र में काव्यगोष्ठी शुभारंभ हुई जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि राम स्वरूप साहू ने की,मुख्य अतिथि डाॅक्टर राज बुंदेली और विशेष अतिथि के रूप में श्रीमती पूनम खत्री जी मंच पर विद्यमान थी काव्यगोष्ठी के संचालन का शुभारंभ आर पी सिंह रघुवंशी ने किया तत्पश्चात संस्था सचिव एन बी सिंह “नादान” ने बखूबी शायराना अंदाज में संचालन की जिम्मेदारी निभाते हुए सर्वप्रथम गोष्ठी का शुभारंभ श्रीमती प्रभा सागर शर्मा के सरस्वती वंदना से करवाया तत्पश्चात महानगर से उपस्थित विभिन्न भाषाओं,विधाओं के गीतकारों, ग़ज़लकारों द्वारा रचनाएँ पढी गयी ।
उपस्थित साहित्यकारों में टी आर खुराना,भुवनेन्द्र सिंह विष्ट, एन बी सिंह नादान,आर पी सिंह रघुवंशी,संजय द्विवेदी (अखिल भारतीय साहित्य परिषद सचिव), राम स्वरूप साहू, नंदलाल क्षितिज, डाँक्टर वफा सुल्तानपुरी,विनय शर्मा “दीप”, ओमप्रकाश सिंह,डाॅ• राव बुंदेली अनिल कुमार राही,मुन्ना यादव मयंक,पूनम खत्री,श्रीराम शर्मा, त्रिलोचन सिंह अरोरा, कुलदीप सिंह दीप, शिवशंकर मिश्र,मंगेश प्रताप सिंह माही,दिलीप ठक्कर, नज़र हयातपुरी,डी एम गुप्ता प्रीत, मनोज मैकस,हनीफ मुहम्मद,राधाकृष्ण मोलासी आदि थे।कविगोष्ठी का शुभारंभ सरस्वती वंदना से हुआ तत्पश्चात विनय शर्मा “दीप” को सुना गया जिनकी रचना को सराहा गया जो इस प्रकार रही –
 जाग जा बेटा सबेरा हो गया है।
अवनि से अंबर उजेरा हो गया है।।
चांद तारे स्वर व दीपक संग हैं हम,
हर घड़ी है वायु की लहरें नहीं गम,
अवनि का सागर से फेरा हो गया है।
जाग जा बेटा सबेरा हो गया है ।।
सूर्य की किरणें जमी पर आ रही हैं,
मालती भी अपने घर को जा रही हैं,
क्षितिज के आंचल अंधेरा खो गया है ।
जाग जा बेटा सबेरा हो गया है ।।
देख कोयल गुनगुनाते डाल पर अब,
सीप के मोती हैं बिखरे पात पर अब,
फूल पर भौंरों का डेरा हो गया है।
जाग जा बेटा सबेरा हो गया है ।।
ज्ञान लेने के लिए ज्ञानी जगे हैं,
बैल के संग खेत सैलानी चले हैं,
दीप दिनकर का बसेरा हो गया है।
जाग जा बेटा सबेरा हो गया है ।।
गीतकार डाॅक्टर राज बुंदेली द्वारा प्रस्तुत गीत बेहद सराहनीय रही-
लेखनी अब जाग जा माॅ भारती के गीत लिख।
शत्रुओं का कर दमन तू,आंधियों पर जीत लिख ।।
राष्ट्र का यशगान लिखकर धन्य हो जा तू स्वयं,
तज अहं का दम्भ कल्मष एक हो जा बन वयं,
शब्द हो मुखरित मधुर डूबें प्रभाती गान में,
भारती के गीत गूंजे पक्षियों की तान में,
वन्दिनी की वंदना का मृदु मलय संगीत लिख।
लेखनी अब जाग जा माॅ——– ।।
 वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश सिंह की कविता जीवन पर आधारित रही जो खूब सराही गयी-
इतना न गुदगुदाओ, कहीं मुस्कुरा न दूँ ।।2।।
जो आग दबी दिल मे है वो मुह मे ला न दूँ।।2।।
इतना न गुदगुदाओ कहीं कहीं मुस्कुरा न दूँ ।।2।।
मैं वो कुआँ हूँ जिसको, खुद पानी की है तलाश।।2।।
कहते हो तुम कि मैं तुम्हारी प्यास बुझा दूँ ।।2।।
इतना न गुदगुदाओ………
इन आँधियों ने बागोँ को,हरदम उजाडा है।।2।।
अब आतातायियों से भला क्या गिला करूँ।2।।
इतना न गुदगुदाओ………
बचपन से मेरी दोस्त रही मेरी गरीबी।2।।
उपहार का पैकेट मैं अपना, किसको थम्हाऊँ।।2।।
इतना न गुदगुदाओ………
पतझड़ के समय आये हो,अब दोस्ती करने।।2।।
तुम्ही बताओ तुमको, कैसे अब मैं हवा दूँ।।2।।
इतना न गुदगुदाओ……….
तुरबत पे उनके आँसू, बहाने का दिल तो है
पर दिल जो जल गया है जले दिल का क्या करूँ।।2।।
इतना न गुदगुदाओ…….
गज़लकार वफ़ा सुल्तानपुरी के गज़ल देश प्रेम से ओतप्रोत दिखे,उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा-
एहसास के सीनों में जलन देख रहा हूँ ।
शोलों में झुलसता मैं वतन देख रहा हूँ ।।
जेहनो में जवानों के जो बारूद भरा है।
हर घर के दरीचों में घुटन देख रहा हूँ ।।
 गीत,गज़ल के राजकुमार मनोज मैकस की रचना काबिले-तारीफ रही-
तुम पढ़ो शांति मंत्र
करते रहो देव परिक्रमा
उपवास रखो
निर्जल , निघोट रहो
विधि विधान
पर जो आश्वस्त
चरणबद्ध
पूजा अर्चना में
निमग्न रहो ।
चिपके रहो
महंत की तरह
सोमनाथ के
शिवलिंग से
मांगते रहो
शक्ति
सुरक्षा और प्राणदान ।
नेत्र मूंद कपोत से
विरक्त अस्त्र
साहसहीन
आश्रित रहो
मात्र शास्त्र पर
उच्चरित करते रहो
वैदिक ऋचाएं
प्राणवायु को
कर स्तम्भित
तलाशलते रहो
ॐ स्फुटन का
श्रेष्ठ स्वर ।
हाथ में धारण करो
रक्षा सूत्र
मस्तक पर
लगाए रहो
अमित तिलक ।
फिर भी
वह गजनी का शैतान
और
उसके निशाचरसम
दैत्याकार योद्धा
न रुकेंगे
वे आएंगे
ध्वस्त करने
तेरी आस्था के
महामंडित
केंद्रबिंदु को ।
तेरे ही लहू से
पोत देंगे तेरे सब
कुंडली चित्र
तेरे सब पंचांग ।
शिवलिंग पर
रख तेरा शीश
गर्दन से अलग कर देंगे ।
जानते हो क्यों ?
क्योंकि वे
निज समय
नष्ट नहीं करते
मन्दिर की ड्योढ़ी पर
जूते उतारने में ।
वे सिर्फ अवसर की
तलाश में रहते हैं
नहीं करते वे
इंतजार
शुभ घड़ी
शुभ महूर्त का ।
वे किसी
पारलौकिक शक्ति से
साहस , शौर्य
और विजय वरदान भी
नहीं चाहते ।
उन्हें भरोसा है
बस अपने बाजुओं पर
अपनी मौका परस्ती पर
और शत्रु की
कमजोरी का
लाभ लेना उन्हें आता है ।
वे खुद के लिए
इस्लाम से कुछ नहीं चाहते
बल्कि
इस्लाम के लिए
खुद को
 कुर्बान करना जानते हैं ।
छोड़ो अब
उनका भी क्यों
शौर्य गान करूँ ।
बस तुम सुनो
चाहते हो यदि
की वो विधर्मी
न लांघ सके
जूतों सहित
तेरे मन्दिर की चौखट
तो
छोड़ शास्त्र को
शस्त्र धारण करो ।
क्योंकि युद्ध
परिपाटी से नहीं
वरन पराक्रम से
जाते जीते ।
और पराक्रम का
अभय , निर्भय
मुक्त और उन्मुक्त
होना जरूरी
बहुत जरूरी है ।।
कवियत्री आभा दवे प्यार एक उपहार है पर वर्णित कविता को इस तरह से कहा-
जीवन का खिला हुआ रूप प्यार है,
कुदरत का सबसे बड़ा उपहार है ।
नारी का श्रृंगार गहने ही से,
सौंदर्य निखारे गले का हार है ।।
 वरिष्ठ कवि एवं संस्था अध्यक्ष आर पी रघुवंशी के संचालन कुछ अलग अंदाज में साहित्यकारों को आमंत्रण गीत प्रस्तुत करते हुए कहा-
शनिवार, संध्या समय,सिडको-
                     बस-स्थान ।
मुन्ना बिष्ट कार्य-आलय में नित आवहु
          कृपानिधान।।
रचना की सौगात से अभिसिंचित
                     मन,प्राण।
भेटेहु तुमहिं गले मिलि,धन्य-धन्य
                      श्रीमान।।
मैं सेवक नित आस में ताकेहु
                     तुमहिं कविवृंद।
जिमि पपिहा चितवत रहत नित
                     स्वाती को बुंद।।
 वरिष्ठ कवि,गीतकार नंदलाल क्षितिज के अंदाज ही कुछ अलग दिखे जो इस प्रकार रहे-
बैनरों से पट गया है शहर  सारा,
जन्मदिन उनका   मनाया जा रहे हैं।
वे अनेकों मामलों में लिप्त हैं
जन्मदिन जिनका मनाया जारहा है।
राजनीति  जुर्म का आधार है,
और यह भी आजकल व्यापार है।
राजनीति जुर्म का यह दोस्ताना,
नुक्कड़ों पर खुब   निभाया जा रहा है।
कल तलक जो वांछित था पुलिस को,
आज उसका गीत  गाया जा रहा है ।
भेड़ चालें चल रहा है आदमी,
हाथ अपने मल रहा है  आदमी।
भेड़िया घुस आया है इस शहर में,
देखकर भी मुश्कराया जा रहा है।
बैनरों पर आज उसका चित्र है,
नाम का डंका बजाया जा रहा है।
बैनरों से पट गया है शहर सारा,
जन्म दिन उसका मनाया जा रहा है।।
 गीतकार,गज़लकार जनाब नज़र हयातपुरी के शायराना अंदाज ने खूब वाहवाही लूटी-
(1)
खुशी के साथ ही कुछ ग़म का होना भी ज़रूरी है।
फ़क़त हंसना नही इस दिल का रोना भी ज़रूरी है।।
थकन आराम का होना बदन को ये भी लाज़िम है।
अगर जागे हैं दिन भर शब में सोना भी ज़रूरी है।।
(2)
पसंद आया मुझे जोभी साजो कर रख लिया उसको।
नहीं भाया अगर कोई मिटा डाला उसे दिलसे।।
(3)
 बैठा हूँ समा अत को आवाज़ तो आए।
अब दरमियाँ पैरों के कुछ साज़ तो आए।।
मुमकिन है के सर करले अफलाक की सरहद को।
पंछी को मगर पहले परवाज़ तो आए।।
 आज के नेताओं का चरित्र चित्रण करते हुए गज़लकार अनिल कुमार राही ने नेताजी की खिंचाई करते हुए कहा-
दुकानें  सज गयी हैं अब
सियासत की,
दिखी नफ़रत लिए है जात
का परचम।
यहाँ मजहब नुमाइश में
दिखा यारो,
जुबां पर है छलावा बात
का परचम।।—  1
किया   वादा  भुला  बैठे
ये नेता तो,
भिखारी हैं समझ लो,बात
इतनी सी।
ये  क्या   देंगे,  मरेंगे  हम
गरीबी में,
दिलों में हैं लिए,अब घात
का परचम।।—-2
लुटेरे हैं  वतन  को लूट
खायेंगे,
करोगे क्या बिका,ईमान
है इनका।
सियासत  में फक़त पैसा
कमाना है,
ये नेता हैं अरक्षण वाद
का परचम।।—-3
ये बैगन से नहीं मजहब
कोई इनका,
गिरेंगे ये,कहां  तक अब
वही जानें।
पता सबको ये कुर्सी के
हैं व्यापारी,
लिए देखो भतीजा वाद
का परचम।।–4
यही   नेता  विवादों  के
हैं सौदागर,
मदारी   हैं    तमाशा  ये
दिखाते हैं।।
कि वोटर को खिलौना ये
समझते हैं,
छलें  हमको  लिए संवाद
का परचम।।—-5
बडे  झूठे  बडे  मक्कार
हैं  नेता,
प्रलोभन  दे  करें   सौदा
चुनावों में।
कहीं  मदिरा  कहीं पैसा
जुआरी हैं,
लिए दिन रात येऔकात
का परचम।।—-6
ये   नेता   तो  करें  वादे
सभी झूठे,
बदलते दल चरित्र इनका
है गणिका सा।
चुनावों  में   बडे   सपने
दिखाये हैं,
बयानी में दिखा जज्बात
का परचम।।—7
इसी तरह सभी उपस्थित गीतकार, गज़लकार एवं कवियों ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया और अंत में संस्था अध्यक्ष श्री आर पी सिंह रघुवंशी ने उपस्थित सभी साहित्यकारों का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद दिया और काव्यगोष्ठी का समापन राष्ट्रगीत से किया।