*रामायण : भ्रांतियां और समाधान* (शोधपूर्ण आलेख)

जिस प्रकार चांद और तारे रात की शोभा बढ़ाते हैं, कमल और जल सरोवर को सजा देते हैं, कोयल और वसंत के मिलने से वातावरण मादक हो जाता है, मयूर और बादल मिलकर किसानों को रोमांचित कर देते हैं उसी प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम राम और माता सीता ने आर्य संस्कृति की सुगन्ध को पूरी दुनिया में फैलाया है ।
श्रीराम का चरित्र बिल्कुल निर्मल है क्योंकि उनके आचरण में वैदिक ऋचाएं रची-बसी हैं । तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा उनके ऊपर उड़ाए गए कीचड़ सर्वथा भ्रामक और निराधार हैं । सत्य की राह पर चलने वाले रामायण के सभी पात्र मानवता के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित हैं । जनमानस में व्याप्त कतिपय भ्रांतियों का समाधान इस लेख में किया गया है जिससे राम का विमल यश लोगों में रम सके ।
वाल्मीकि रामायण में राम को ‘आर्य’ कहा गया है । प्रस्तुत श्लोक देखें –
“सर्वदाभिगतः सद्भि : समुद्र इव सिंधुभिः ।
आर्य : सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शिन : ।।”
जिस प्रकार नदियां समुद्र में पहुंचती हैं, उसी तरह उनके पास सज्जनों का समागम रहता है । वे आर्य हैं, वे समदृष्टि हैं और सदा प्रियदर्शन हैं । ‘आर्य’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वेदों में मिलता है –
‘इन्द्र वर्धन्तो अप्तुरः कृणवंतो विश्वमार्यम् ।’
अर्थात अपने आत्मा को दिव्य गुणों से अलंकृत करते हुए सम्पूर्ण संसार को आर्य बनाते हुए हम सर्वत्र विचरें ।
निरुक्तकार यास्क लिखते हैं –
‘आर्य ईश्वरपुत्र :’
आर्य का अर्थ है – ईश्वर का पुत्र ।
श्री अरविंद घोष आर्य महिमा को मंडित करते हुए लिखते हैं –
‘आर्य’ शब्द में उदारता, नम्रता, श्रेष्ठता, सरलता, साहस, पवित्रता, दया, निर्बल – संरक्षण, ज्ञान के लिए उत्सुकता, सामाजिक कर्तव्य पालन आदि सभी उत्तम गुणों का समावेश हो जाता है । मानवीय भाषा में इससे उत्तम कोई शब्द नहीं है ।
कुछ लोगों का मानना है कि विवाह के समय श्रीराम की आयु तेरह वर्ष और सीता की आयु छह साल की थी परंतु यह धारणा सर्वथा मिथ्या है । जब राम विश्वामित्र के साथ यज्ञ रक्षा के लिए वन में गए थे तब उनकी आयु पंद्रह वर्ष की थी । यह बात तब सिद्ध हो जाती है, जब श्रीराम को राजा जनक ने देखा तो उन्हें राम की आयु “समुपस्थितयौवन” अर्थात ‘यौवन में पैर रखा है’ लगी । आयुर्वेद ग्रंथों के अनुसार पच्चीस वर्षों से यौवन आरंभ होता है । अत: यह निश्चित है कि विवाह के समय राम की आयु पच्चीस और सीता की 18 वर्ष की थी । वेद में कहा गया है –
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विंदते पतिम् ।
ब्रह्मचर्य के पालन से कन्या युवा पति को प्राप्त करती है । यदि विवाह के समय सीताजी की आयु 6 वर्ष की थी तो उनकी बहनों (श्रुतिकीर्ति, मांडवी और उर्मिला) की उम्र तो 6 वर्ष से भी कम रही होगी । यदि गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों को देखें तो भी सत्यता प्रमाणित होती है –
‘ रंगभूमि जब सिय पगुधारी ।
देखि रूप मोहे नर नारी ।।
सीय चकित चित रामहि चाहा ।
भये मोह बस सब नर नाहा ।।’
इन चौपाइयों को पढ़कर पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि क्या छह साल की अपरिपक्व सीता का चित्त राम को चाहने लगा ?
‘यत्र नार्यः पूज्यंते रमंते तत्र देवता:’ इस मान्यता की आड़ लेकर लोग प्रभु राम की आलोचना करते हैं । सीता, शूर्पणखा और अहिल्या का उदाहरण देकर उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाता है । अहिल्या के संदर्भ में लोगों ने कहा कि एक ऋषि – पत्नी को राम ने अपने पैर से छुआ था । आप कल्पना कर सकते हैं कि मर्यादा की डोर में बंधा एक क्षत्रिय राजकुमार क्या ऋषि – पत्नी को अपने पैर से स्पर्श कर सकता है ? प्रमाण स्वरूप महर्षि बाल्मीकि का यह श्लोक देखें –
‘ ददर्श व महाभागां तपसा द्योतिप्रभाम्
लोकैरपि समागम्य दुर्नीरिक्ष्या सुरासुरै :
राघवाै तु ततस्तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा ।’
अर्थात वहां जाकर उन्होंने देखा कि अहिल्या तप के तेज से देदीप्यमान हो रही थी । सुर तथा असुर कोई भी उससे नेत्र नहीं मिला सकता था । श्रीराम और लक्ष्मण ने प्रसन्न होकर उसके पैर छुए ।
लोगों में यह भ्रम है कि सीता धरिणी (पृथ्वी) के गर्भ से पैदा हुई थी किंतु यह गलत है । ‘धरिणी’ राजा जनक की पत्नी का भी नाम था । वाल्मीकि रामायण और शिवपुराण में सीताजी का जन्म ‘योगिनी’ से बताया गया है –
‘ वीर्यशुल्केति मे कन्या नामना सीतेति विश्रुता
योगिन्यास्तनयां तां वर्धमानां ममात्मजाम् ।’
– वा. रामायण, पंचविंशः सर्ग :
‘धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च
तस्या कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति ।’
– शिवपुराण, पार्वती खंड 2/29
गोस्वामी जी भी लिखते हैं –
‘तात जनक तनया यह सोई ।
धनुष यज्ञ जेहि कारन होई ।’
एक और भ्रांति लोगों में है । यह धारणा है कि दशहरा – विजयादशमी के ही दिन राम ने रावण का वध किया था । इसके खंडन में कृपया निम्न श्लोक देखें –
‘चैत्र: श्रीमानयं मासः पुण्य: पुष्पित कानन: ।
यौवराज्याय रामस्य सर्वभेवोकल्प्यताम् ।’
– अयो. 3/ 4
इस श्रेष्ठ और पवित्र चैत्र मास में, जिसमें वन पुष्पों से सुशोभित हो रहे हैं, श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी कीजिए ।
राज्याभिषेक के पहले ही राम को वन जाना पड़ा था । चौदह वर्ष के बाद पुनः चैत्र मास का ही आगमन होता है । इसके लिए एक अकाट्य प्रमाण देखें –
‘चैत्र शुक्ल चौदह जब आई ।
मरयो दशानन जग दुखदाई ।।’
– रामचरितमानस, पृष्ठ 1260, वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई, 1901
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि रावण – वध का दशहरा और दीपावली से कोई संबंध नहीं है, इसका महत्व तो कुछ और ही है ।
धोबी के कहने पर श्रीराम ने गर्भिणी सीता का परित्याग कर दिया था, आज लोग यही मानते हैं । हिंदी साहित्य के धुरन्धर कवि जगदीश गुप्त ने अपने खंड काव्य ‘ शंबूक वध’ में तो राम की तुलना कसाई से कर दी है । मिथकों के नए प्रयोगों में मशगूल आधुनिक कवियों ने भारतवर्ष की संस्कृति को अपने पैरों तले खूब रौंदा है । सीता की अग्नि परीक्षा के समय श्रीराम ने सीताजी से कहा था –
‘ विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा ।
न हि हातुमियं शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ।।
– युद्ध 066/23
उपरोक्त बातें क्या श्रीराम के द्वारा मिथ्या कही गई हैं जिन्हें ‘रामोद्विर्नाभिभाषते’ कहा जाता है । यदि सीता परित्याग की स्थिति आ ही जाती तो राम स्वयं राजगद्दी छोड़ वन में चले जाते ।
आज रामायण को लेकर लोगों में नाना प्रकार की भ्रांतियां फैल चुकी हैं । इन भ्रांतियों के जिम्मेदार काफी हद तक पाश्चात्य विद्वान भी हैं । अधिकांश विद्वानों का सिद्धांत रहा है –
“If you want to destroy a nation, destroy its history and the nation will perish of its own accord.”
इसी सिद्धांत को लेकर पाश्चात्य विद्वानों एवं विशेष विचारधारा के भारतीय बुद्धिजीवियों ने यह भ्रांति फैलाई कि रामायण एक कल्पित महाकाव्य है । यही नहीं अपनी बात मनवाने के लिए शिक्षा व्यवस्था का सहारा लिया गया । परिणाम उनके पक्ष में रहा । इन्हीं विचारों ने हमारे राष्ट्र के युवक – युवतियों, लेखकों, प्राध्यापकों, शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों के मस्तिष्क को विकृत कर दिया । उन्हें यह पता ही नहीं कि रामायण प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति का दर्पण है । तनिक विचार करें, क्या आर्यावर्त की भौगोलिक सीमाएं (चित्रकूट, अयोध्या, नाशिक, प्रयाग, लंका आदि) भी उसी काल्पनिकता की उपज है ? रामायणकालीन विज्ञान बहुत विकसित था । इसी को लक्ष्य करके पाश्चात्य विद्वान जेम्स जीन्स ने कहा – “जब हमारे पूर्वज पशुओं का शिकार और परस्पर एक दूसरे की हत्या करते रहते थे तब भारत में परिपक्व दर्शन ग्रंथ रचे जा चुके थे । कला, कविता, साहित्य सभी दिशाओं में वह इंग्लैंड से आगे था ।”
बालि और श्रीराम जी के विषय में लोगों की यह मान्यता है कि राम ने बालि को छिपकर मारा था । यह भी संदेह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है । जब बालि सुग्रीव से युद्ध के लिए तैयार था, उसी समय उसकी पत्नी तारा ने सूचित कर दिया था –
” सुग्रीवप्रियकामार्थ प्राप्तौ तत्र दुरासदौ ।
तव भ्रातु : हि विख्यात: सहायो रण कर्कश: ।।
अर्थात सुग्रीव की अभीष्ट सिद्धि के लिए वे दोनों (राम और लक्ष्मण) दुर्धर्ष वीर कटिबद्ध हुए हैं । रणकुशल वे दोनों भाई सुग्रीव के सहायक बने हैं ।
अतः यह सिद्ध होता है कि बालि को उसकी पराजय की पूर्व सूचना मिल चुकी थी तो हम राम के ऊपर कैसे दोषारोपण कर सकते हैं ? दूसरी ओर जब राम ने बालि के ऊपर शर – संधान किया था, तो उसके पहले उन्होंने अपने धनुष की टंकार इतने जोर से की थी कि पेड़ बैठे पक्षी तक उड़ गए । संपूर्ण जंगल चलायमान हो उठा था । क्या बालि इतनी बड़ी घटना के प्रति असावधान होकर सुग्रीव से लड़ता रहा ! नहीं, उस घटना से उसकी भौहें तन गई थीं, तो हम कैसे कह सकते हैं कि राम ने बालि को छिपकर मारा था । दूसरा प्रश्न यह उठता है कि जब सुग्रीव और बालि के बीच भयंकर युद्ध हो रहा था, बालि और सुग्रीव लगातार पैतरा बदल रहे थे, तब इस दौरान कौन – सी स्थिति आई होगी जब राम का बाण बालि का वक्षस्थल विदीर्ण कर गया ? युद्ध में यह स्थिति तब आई जब सुग्रीव पेट के बल जमीन पर पड़ा था । बालि का पैर उसके पीठ पर था । वह बलपूर्वक सुग्रीव के दोनों हाथ अपनी ओर खींच रहा था । ऐसी स्थिति में बालि की छाती प्रभु राम की तरफ थी । अगर वह शर – संधान न करते तो सुग्रीव का प्राणांत हो जाता ।
रावण के विषय में यह भ्रम है कि उसके पास दस सिर और बीस भुजाएं थीं । इसी मान्यता के आधार पर बहुतेरे पाश्चात्य विद्वानों ने लिखा कि भारत का इतिहास भूत और पिशाचों का है । यदि हम वाल्मीकि रामायण को देखें तो वहां रावण की दो भुजाओं का उल्लेख है :
“परं दानवदर्पघ्नं सौमित्रं देवकंटक : ।
तं पीडयित्वा बाहुभ्यां प्रभु: लंघेन अभवत् ।।”
देवताओं के कंटक रावण ने दानव दर्पहारी लक्ष्मण जी को दोनों भुजाओं में दबाकर उठाना चाहा परंतु उन्हें उठाने में वह असमर्थ था ।
अब रावण के सिरों के विषय में बात की जाए । महर्षि ने लिखा है, ‘एवमेकशतं छिन्नं शिरसां तुल्यवर्चसाम्’ । रावण का दस सिर अथवा बीस सिर मायावी थे । वास्तविक रूप से उसका केवल एक ही सिर था । ‘दशानन’ का अर्थ पाठक दस सिर से न समझें । यदि हम ‘दशानन’ का अर्थ दस सिर से लगाते हैं तो ‘दशरथ’ का अर्थ दस रथों से लगाना चाहिए । मतलब राजा दशरथ के पास मात्र दस ही रथ थे ! रावण के दस सिरों को स्वीकार करने वाले लोग निश्चय ही रामायण को विज्ञान से अलग करके देख रहे हैं ।
विश्व की सर्वश्रेष्ठ कृति रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि के संबंध में लोगों में यह मिथ्या धारणा है कि वे आरंभ में डाकू थे । वाल्मीकि के संदर्भ में रामायण को ही प्रामाणिक माना जाएगा । सीता जी की पवित्रता का साक्ष्य देते हुए उन्होंने लिखा है :
“प्रचेतसोहं दशम: पुत्रो राघवनंदन ।
मनसा कर्मणा वाचा भूतपूर्व न किल्विषम् ।”
हे राम ! मैं प्रचेतस मुनि का दसवां पुत्र हूं । मैंने मन, वचन और कर्म से कभी पापाचरण नहीं किया है ।
महर्षि वाल्मीकि को पवित्र और पूज्य समझने वाले विद्वतजन यदि उनके इस प्रमाण को मिथ्या मानकर अपने हठ को ही सत्य मानते हैं तो यह उनका दुराग्रह ही है । ये वही लोग हैं जो राम के चरित्र पर उंगली उठाकर कुछ नया कहने के जुगाड़ में लगे रहते हैं । इनकी जगह साहित्य में वही होती है जो खबरों के बाजार में खबरिया चैनलों की है । ये संबोधन चिह्न और प्रश्नवाचक चिह्न का आश्रय लेकर सेंसेशन बनाए रखते हैं । तथ्यों और शोध से इनका दूर – दूर तक कोई संबंध नहीं ।
रामायण हमारी अनमोल विरासत है । इसे हम सिर्फ पाँच – छह सहस्र वर्षों तक सीमित करके न देखें और न ही मनोरंजन हेतु सतही चमत्कार मानकर चलें । यह शाश्वत और सार्वभौम है । यह इतिहास की वह सच्चाई है जिसमें तर्क, तथ्य और प्रमाण के साथ – साथ संपूर्ण विज्ञान है । आवश्यकता है कि इस पर जमी वक़्त की धूल को पूरी ईमानदारी के साथ साफ किया जाय । इस प्रयास में न तो इसके साहित्य से छेड़छाड़ हो और न ही इसकी प्रामाणिकता से । अस्तु ।

साभार : काव्य विवेक और निबंध लालित्य : डॉ. जीतेन्द्र पांडेय