शिल्पकर्म एक ब्राह्मण कर्म

मुंबई | शिल्पकर्म की उत्पत्ति वेदांग कल्प के शुल्व-सूत्र से हुई है और वास्तुकला की उत्पत्ति वेदांग ज्योतिष की संहिता स्कंद से हुई है वेदांग ग्रंथों का अध्ययन करना ब्राह्मणो का प्रमुख कर्तव्य आदिकाल से रहा है शुल्व-सूत्र से यज्ञवेदी (यज्ञकुंड) , यज्ञशाला , यज्ञमंडप , यज्ञपात्र , मूर्ति आदि का निर्माण होता हैं जो ब्राह्मण शुल्व-सूत्र में निहित शिल्पकर्म नहीं जानता वो ये निर्माण नहीं कर सकता जो ब्राह्मण शिल्पकर्म नहीं जानता उसे यज्ञ करने का अधिकार भी नहीं है क्योंकि आदिकाल से लेकर अब तक वैदिक यज्ञों में यज्ञशाला , यज्ञमंडप , यज्ञवेदी आदि शिल्पकर्म से ब्राह्मण ही निर्मित करते आए हैं इसलिए ब्राह्मणों के द्वारा किए जाने वाले शिल्पकर्म को ब्रह्मशिल्प कर्म भी कहा जाता है औऱ ऐसे ब्राह्मणों को ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण भी कहा जाता हैं वास्तुकला से बड़े बड़े नगर , दुर्ग किले , देवालय (मंदिर) , महल , वापी , कूप , बावड़ी , तालाब , बड़े बड़े जलाशय आदि का निर्माण होता हैं जिन ब्रह्मशिल्प कर्मो का निर्वहन आज भी विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मण पाँच प्रकार के शिल्पकर्मो के माध्यम से करते आ रहें है |

पंचशिल्पकर्म निम्न है , लौह शिल्प – लौहकार ब्राह्मण (लोहार) , काष्ठ शिल्प – काष्ठकार ब्राह्मण (बढ़ई) , ताम्र शिल्प – ताम्रकार ब्राह्मण , शिला शिल्प – शिल्पी ब्राह्मण , स्वर्ण शिल्प – स्वर्णकार ब्राह्मण (सोनार) करते है ये सब कर्म शिल्पविज्ञान के अन्तर्गत आता है अतः इसके ज्ञाता वैज्ञानिक भी कहलाते है लौह शिल्प औऱ काष्ठ शिल्प को करने वाले ब्राह्मण आज भी समस्त भारतवर्ष में पाए जाते हैं उत्तर , मध्य और पश्चिम भारत में जो स्वर्णकार , ताम्रकार है उनमें अधिकतर मेढ क्षत्रिय और हैहयवंशी क्षत्रिय हैं इनका विश्वकर्मा वंश के मूल ब्राह्मणों से कोई संबंध नहीं हैं इन क्षेत्रों में कुछ लोग हों सकते हैं जो मूलरूप से विश्वकर्मा ब्राह्मण कुल के स्वर्णकार , ताम्रकर औऱ शिल्पकार हों , परंतु अधिकतर नहीं हैं मूलरूप से विश्वकर्मा स्वर्णकार ब्राह्मण और विश्वकर्मा ताम्रकार ब्राह्मण आज भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के सभी राज्यों में पाए जाते हैं जो मूल रूप से विश्वकर्मा ब्राह्मणों की परंपराओं से जुड़े हुए हैं उत्तर , मध्य और पश्चिम भारत में जो कुछ शिल्पकार जाती हैं वो भी विश्वकर्मा वैदिक शिल्पी ब्राह्मणों के अंतर्गत नहीं आती हैं जिन्होंने व्यवसाय के अभाव में अपनी जीविका चलाने के लिए शिल्प को अपना लिया , मूलरूप से विश्वकर्मा शिल्पकार ब्राह्मण समाज जो पत्थर के शिल्प से जुड़ा है वह आज भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के सभी राज्यों में आज भी परंपराओं से पाए जाते है परंतु कुछ इनमें भी अपवाद हो सकते हैं जो विश्वकर्मा कुल के पंचशिल्पी या ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण नहीं है |

शिल्प अपने आप में एक व्यापक शब्द है शिल्प करने का अधिकार शास्त्रों में तीन वर्णों को है ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य , परंतु जो ब्राह्मण जाति ब्रह्मशिल्प कर्म के पांच प्रकार के शिल्प कर्म (लौहशिल्प , काष्ठशिल्प , ताम्रशिल्प , शीलाशिल्प , स्वर्णशिल्प) से जुड़ी है वही विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कहलाते हैं वैदिक गुरुकुलों में अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद अर्थात शिल्पवेद का अध्ययन ब्राह्मणो के लिए प्रमुख होता है संपूर्ण वेद सहित शिल्पवेद के साथ शास्त्रों के ज्ञाता को आचार्य पद प्राप्त होता है वो ही यज्ञ के सर्वोच्च पद ब्रह्मा का अधिकारी होता है इन्ही वैदिक ब्रह्मशिल्प कर्मो के धारण करने के कारण ये शिल्पी ब्रह्मशिल्पी भी कहलाते हैं समस्त मनुष्य जाति ब्रह्मशिल्पी वैज्ञानिक ब्राह्मणों के निर्माणों द्वारा अपनी जीविका चलाती है जो आदिकाल से चला आ रहा हैं जिसके प्रमाण अनेकों शास्त्रों में है शिवमहापुराण का प्रमाण देते हैं और अन्य पुराणों एवं शास्त्रों में भी यही श्लोक यथारूप से हैं |

मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः॥

अर्थात :- संपूर्ण मनुष्य जाति शिल्प से अपनी अपनी जीविका का निर्वहन करती हैं जो उस महात्मा देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा निर्मित हैं
(शिवपुराणम्/संहिता 5 (उमासंहिता)/अध्यायः 31, श्लोक – 34)
(विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्याय- १५,श्लोक -120)
(हरिवंशपुराणम्/पर्व १,/अध्याय- 3, श्लोक-48)
(महाभारतम्-01-आदिपर्व-67)
शास्त्रों में विज्ञान अर्थात शिल्प के संदर्भ में अनेकों उल्लेख है वास्तुकला ज्योतिष का मुख्य विषय है औऱ ज्योतिषी तो ब्राह्मणों को ही कहा जाता है जिसक़े प्रमाण निम्न है |

वास्तुविद्यान्ग विद्यावायस विद्यानंतर..॥

  • (वाराही संहिता अ.२,श्लोक ६)
    अर्थात – वास्तुकला ज्योतिष शास्त्र का विषय है।
    वास्तुकला के अन्तर्गत घर , मकान , कुँवा, बावड़ी , पुल , नहर , किला , नगर, देवताओं के मंदिर आदि शिल्पादि पदार्थो की रचना की उत्तम विधि होती है।
    ब्राह्मणो के इष्टकर्म और पूर्तकर्म
    ब्राह्मणो के दो प्रकार के कर्मो से परिचय कराएंगे। एक है ‘ इस्ट ‘ कर्म और दूसरा है ‘ पूर्त ‘ कर्म। इस्ट कर्म से ब्राह्मणो को स्वर्गप्राप्ति होती है और पूर्त कर्मो से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात जो ब्राह्मण इस्ट कर्म ही सिर्फ करके पूर्त कर्म ना करें उसे मोक्ष नहीं मिल सकता है जो सनातन धर्म में मनुष्यों का अंतिम लक्ष्य है। इसके प्रमाण स्वरूप कुछ धर्मशास्त्र से प्रमाण निम्न है ,
    इस्टापूर्ते च कर्तव्यं ब्राह्मणेनैव यत्नत:।
    इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षो विधियते॥
  • (अत्रि स्मृति)
  • (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ – ६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी)
    अर्थात – इष्टकर्म और पूर्तकर्म ये दोनों कर्म ब्राह्मणो के कर्तव्य है इसे बड़े ही यत्न से करना चाहिए है। ब्राह्मणो को इष्टकर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पूर्तकर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
    इसी प्रकार की व्याख्या यम ऋषि ने भी धर्मशास्त्र यमस्मृति में की है जो निम्न है ;
    इस्टापूर्ते तु कर्तव्यं ब्राह्मणेन प्रयत्नत:।
    इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षं समश्नुते
  • (यमस्मृति)
  • (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ १०६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी)
    अब अत्रि ऋषि की अत्रि स्मृति नामक धर्मशास्त्र के आगे के श्लोक से इष्ट कर्म और पूर्त कर्मो के अन्तर्गत कौन से कर्म आते है उसकी व्याख्या निम्न है ;
    अग्निहोत्रं तप: सत्यं वेदानां चैव पालनम्।
    आतिथ्यं वैश्यदेवश्य इष्टमित्यमिधियते॥ वापीकूपतडागादिदेवतायतनानि च।
    अन्नप्रदानमाराम: पूर्तमित्यमिधियते॥
  • (अत्रि स्मृति)
  • (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ – ६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अर्थात – ब्राह्मणो को अग्निहोत्र(हवन), तपस्या , सत्य में तत्परता , वेद की आज्ञा का पालन, अतिथियों का सत्कार और वश्वदेव ये सब इष्ट कर्म के अन्तर्गत आते है। ब्राह्मणो को बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों की प्रतिष्ठा जैसे शिल्पादि कर्म , अन्नदान और बगीचों को लगाना जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे कर्म पूर्त कर्म है। उपर्युक्त सभी अकाट्य प्रमाणो से ये सिद्ध होता है कि ब्राह्मणो के सिर्फ षटकर्म जैसे इष्टकर्म ही नहीं है अपितु शिल्पकर्म जैसे पूर्तकर्म भी है जिनमें बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा जैसे कर्म शिल्पकर्म के अन्तर्गत आते है जिसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है जो सनातन धर्म का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है। पूर्तकर्म (शिल्पादि कर्म) का उल्लेख अथर्ववेद में भी आया है। महर्षि पतंजलि ने शाब्दिक ज्ञान को मिथ्या कहा है। कल्प के व्यावहारिक ज्ञाता को ही ब्राह्मण कहा जाता है। क्योंकि उसी वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा जी ये सृष्टि को अपनी सर्जना से कल्पित अर्थात निर्मित करते है उन्हीं ब्रह्मा जी की सृजनात्मक कल्पना शक्ति जिसमें होती है वहीं ब्राह्मण कहलाता है। सर्जनात्मक विधा ही निर्माण अर्थात शिल्पकर्म कहलाती है। ब्रह्मा जी का प्रमुख कर्म है सृजन अर्थात निर्माण किसी एक इसी के कारण इनका पद ब्रह्मा है। ब्रह्मा जी एक दिन और रात को ‘ कल्प ‘ कहते हैं। कल्प का अर्थ होता है यज्ञ। वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई हैं। वेदांग कल्प से निर्मित होने के कारण शिल्पकर्म भी यज्ञ सिद्ध होता हैं। निर्माण से संदर्भ में यज्ञशाला या शाला का निर्माण का उल्लेख वेदो के साथ-साथ अन्य शास्त्रों में भी बहुत से स्थानों पर है हम आपके समझ अथर्ववेद का एक ऐसा ही उदाहरण देते हैं जिसमें शाला के निर्माण को ब्राह्मणों द्वारा बताया गया है ; ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम् । इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः ॥
    • (अथर्ववेद कांड -9, सूक्त- 3, मंत्र-19)
      अर्थात – ब्रह्मशिल्प विद्या को जानने वाले ब्राह्मणों ने शाला का निर्माण किया और सह विद्वानों ने इस निर्माण के नापतोल में सहायता की हैं। सोमरस पीने के स्थान पर बैठे हुए इंद्रदेव और अग्नि देव इस शाला की रक्षा करें।

सभी को यह स्मरण रहे कि अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद अर्थात शिल्प वेद है उपर्युक्त मंत्र अथर्ववेद का है जिसमें अथर्व वेद को जानने वाले ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मणों ने शाला का निर्माण किया , अथर्ववेद के अनुसार अंगिरस ब्राह्मण अर्थात अथर्ववेदी परमात्मा के नेत्र समान है अथर्ववेद के ज्ञाता को यज्ञ में सर्वोच्च पद ब्रह्मा का प्राप्त है ब्रह्मशिल्पी विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कुल के ब्राह्मण अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद होने के कारण अथर्ववेदीय विश्वकर्मा ब्राह्मण भी कहलाते हैं वेदों अथर्ववेदी ब्राह्मणों की महिमा का अभूतपूर्व वर्णन है अथर्ववेद में विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों को यज्ञवेदियों (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके यज्ञ का विस्तार करने वाला अर्थात यज्ञकर्ता कहा गया है |

यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माण:।
यस्यां मीयन्ते स्वरव: पृथिव्यामूर्ध्वा: शुक्रा आहुत्या: पुरस्तात् ॥

सा नो भूमीर्वर्धयद् वर्धमाना ॥
– (अथर्ववेद कांड-१२ , सूक्त-१, मंत्र-१३)
अर्थात :- जिस भूमि पर सभी ओर वेदिकाऍ (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके विश्वकर्मादि (शिल्पी ब्राह्मण) यज्ञ का विस्तार करके यज्ञ करते हैं जहाँ शुक्र (स्वच्छ या उत्पादक) आहुतियों के पूर्व यज्ञीय आधार स्थापित किए जाते हैं तथा यज्ञीय उद्घोष होते हैं वह वर्धमान भूमि हम सब का विकास करे , उपर्युक्त सभी अथर्ववेद के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि निर्माण का कर्म ब्राह्मणों का है इसलिए शिल्प विद्या को ब्रह्मशिल्पी विद्या भी कहा जाता है इन अकाट्य वैदिक प्रमाणों शिल्पकर्म ब्राह्मण कर्म सिद्ध होता है और इसको करने वाले ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण अथवा अथर्ववेदीय विश्वकर्मा ब्राह्मण कहलाते हैं |

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ १/७/१/५ स्पष्ट में कहा गया है कि यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म: अर्थात यज्ञ ही मनुष्यों का श्रेष्ठतम कर्म है |

अब हम आपको वाल्मीकि रामायण का एक श्लोक का उदाहरण देकर शिल्पियो द्वारा किये यज्ञकर्म अर्थात श्रेष्ठकर्म का वर्णन करेंगे |

नचावज्ञाप्रयोक्ततव्या दाम क्रोध भयादपि।
यज्ञकर्मसुयेऽब्यग्रा: पुरुष शिल्पकारिणी॥

तेषामपि विशेषण पूजाकार्या यथाक्रमम् येस्यु: स॑पूजिता: सर्वेवसुभिर्भोजनेनच।। (रामायण बालकाण्ड, सर्ग-१३)

अर्थात :- जो मनुष्य यज्ञादि कर्मों में सावधान है ऐसे शिल्पकार लोगों का काम , क्रोध , भय तथा किसी भी प्रकार से अपमान न करें अपितु उनका धनादि पदार्थ व अनेक विधि भोजनादि से विशेषकर पूजन करें , सर्वप्रथम हमें ये ज्ञात होना चाहिए कि शिल्पकर्म विज्ञान के अंतर्गत ही आता है जो कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी माना है उन्होंने शिल्पकर्म को यज्ञकर्म माना है सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास में मनुस्मृति के २/२८ के श्लोक महायज्ञैश्च यज्ञैश्च का अर्थ शिल्पविद्या किया है , सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ में तृतीयसमुल्लास में उन्होंने मनुस्मृति के अध्याय 2, श्लोक 3 को उधृत करते हुए लिखा है कि सकल विद्या पढ़ने पढ़ाने , ब्रह्मचर्य , सत्यभाषणादि नियम पालने , अग्निहोत्रादि होम , सत्य का ग्रहण , असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने , वेदस्थ कर्मोपासना , ज्ञान , विद्या के ग्रहण , पक्षेष्ट्यादि करने , सुसन्तानोत्पत्ती , ब्रह्म , देव , पितृ , वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पंच महायज्ञ और अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादिर यज्ञों (शिल्पकर्म) के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधार रूप ब्राह्मण का शरीर बनता है इतने साधनों के बिना ब्राह्मण शरीर नहीं बन सकता , इस श्लोक के अर्थ में महर्षि दयानंद ने ये सिद्ध किया है कि शिल्प विज्ञान के धारण के बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं कहला सकता है |

भविष्य पुराण में शिल्पकर्म एवं वेदो के अध्ययन को ब्राह्मणों का लक्षण बताया गया है |

शिल्पं हि वेदाध्ययनं द्विजानां वृत्तं स्मृतं ब्राह्मणलक्षणं तु। (भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व 1,अ.41,श्लोक-7)
अर्थात – शिल्पकर्म एवं वेदों का अध्ययन द्विज रूपी ब्राह्मणों के कर्म एवं लक्षण है |

वेद ज्ञान है उन्हीं वेदों के अंतर्गत आने वाला जो प्रमुख विषय हैं शिल्प वह विज्ञान है शास्त्रों में अनेकों स्थानों पर शिल्प को विज्ञान शास्त्र कहा गया है आदिकाल से ब्राह्मणों का मूल कर्म विज्ञान ही रहा है इसलिए ब्राह्मण वैज्ञानिक या ज्योतिषाचार्य भी कहलाते हैं ज्योतिष भी सर्वोच्च विज्ञान ही है ज्योतिष की संहिता स्कंद से ही वास्तु विज्ञान की उत्पत्ति हुई है और वेदांग कल्प के शुल्व-सूत्र से शिल्प विज्ञान की उत्पत्ति हुई है |

शब्दकल्पद्रुम संस्कृत का आधुनिक युग का एक महाशब्दकोश है जिसमें विज्ञान शब्द की व्याख्या करते हुए निम्न उल्लेख है

मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्प-शास्त्रयोः ॥

बृहस्पति स्मृति में देवगुरु बृहस्पति ने शिल्प को उच्चतम विज्ञान कहा हैं यथा ;
विज्ञानं उच्यते शिल्पं हेमरूप्यादिसंस्कृतिः।
(बृहस्पति स्मृति – १,१५.७)
भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में ब्राह्मणो के कर्मो में विज्ञान अर्थात शिल्प बताया है जो निम्न है ,
आज कलयुग में लोग ज्ञान को विज्ञान से अलग समझने लगे है जबकि वेद ज्ञान है तो शिल्प विज्ञान है। बिना इन दोनों के कोई पूर्ण ब्राह्मण बन ही नहीँ सकता।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में ब्राह्मणों के लक्षण में ‘ विज्ञान ‘ (शिल्पादि कर्म) का वर्णन है जो निम्न है ;
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||

  • (श्रीमद्भागवत गीता- अ.१८, श्लोक-४२)
    अर्थात – मनका निग्रह करना इन्द्रियों को वशमें करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना, विज्ञान अर्थात यज्ञविधि , शिल्पादि कर्म को व्यावहारिक रूप से करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना , ये सब-के-सब ब्राह्मण के स्वाभाविक लक्षण एवं कर्म हैं।
    जगत प्रसिद्ध महा विद्वान पंडितो ने अपने ग्रंथो में भी विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों की महिमा एवं श्रेष्ठता का उल्लेख है उनको ब्राह्मण स्वीकार करते हुए माना है।
  • ‘ ब्राह्मणोत्पत्तीमार्तण्ड ‘ ग्रंथ जो ब्राह्मणों की जगत प्रसिद्ध पुस्तक है उसके लेखक पं.हरिकृष्ण शास्त्री जी थे। यह पुस्तक लगभग 100 वर्ष पुरानी है। जिसमें समस्त विश्व के मुख्य ब्राह्मणों का उल्लेख है उसमें पृष्ठ ५६२ – ५६८ तक विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मणों का उल्लेख ‘ अथ पांचालब्राह्मणोंत्पत्ती प्रकरण ‘ बताकर दिया गया है। जिसमें शिल्प कर्म करने वाली पांचों शिल्पी उपजातियों जिसमें लौहकार(लोहार) , काष्टकार(बढ़ई), ताम्रकार, शिल्पकार औऱ स्वर्णकार को ब्राह्मण मानकर उन्हें ब्राह्मणों के प्रमुख कर्म षटकर्म एवं अन्य ब्राह्मण कर्मो के करने का अधिकारी कहा गया है।
  • ब्राह्मण विद्वान पं.ज्वालाप्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘ जाति भास्कर ‘ के पृष्ठ २०३-२०७ में शिल्पकर्म को ब्राह्मणों कर्म मानते हुये एवं विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मणों को ब्राह्मण जाति कुल का स्वीकार करते हुये उन्हें षटकर्म अर्थात यज्ञ करना , यज्ञ कराना , वेद पढ़ना , वेद पढ़ाना , दान देना औऱ दान लेने के अधिकार के साथ अन्य ब्राह्मणों के कर्म करने का अधिकारी माना है।
  • ‘ब्राह्मणवंशेतिवृत्तम’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक जिसके लेखक वेदरत्न पं.परशुराम शास्त्री विद्यासागर थे। जिसमें मुख्य ब्राह्मणों का प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास का उल्लेख है। इसमें भी विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को मूलरूप से ब्राह्मण माना गया है। आप लोग इसमें जांगिड़ ब्राह्मण (विश्वकर्मा ब्राह्मण) का विस्तृत परीचय पृष्ठ 116 से 130 में हैं इसे पढ़ सकते हैं। इसी प्रसिद्ध पुस्तक में पृष्ठ 182 से 186 के बीच शिल्प कर्म करने वाले मत्स्य पुराण के अनुसार 18 शिल्पकर्म के उपदेशक ऋषि ब्राह्मणों का भी उल्लेख है। त्वष्टा विश्वकर्मा अर्थात देवों के आचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा का भी विस्तृत परिचय है। साथ ही इसमें वैदिक शिल्पी ब्राह्मण अर्थात रथकार ब्राह्मण ,पांचाल ब्राह्मण तक्षा ब्राह्मण आदि शिल्पियों को ब्राह्मण मानते हुए उनका प्रमाण है।
  • ‘ब्राह्मणोंत्पत्ति दर्पण ‘ नामक पुस्तक जिसके लेखक डॉ पंडित मक्खनलाल मिश्र ‘मैथिल ‘ जी है। जिनकी पुस्तक में विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मण उत्पत्ति में पृष्ठ क्रमांक 358 से 361 तक विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मणों की उत्पत्ति बताई गई है जिसमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख आया है कि विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मण समाज मूल रूप से ब्राह्मण समाज है और इन्हें षटकर्म के साथ-साथ ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ ,भूत यज्ञ और जप यज्ञ का पूर्ण रूप से अधिकार है।
  • ‘ ब्राह्मण गोत्रावली ‘ नामक पुस्तक जिसके लेखक ज्योतिषाचार्य पंडित राजेंद्र देवलाल जो उत्तराखंड से छपी थी। इस पुस्तक के पृष्ठ 114 से 117 के बीच विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों में जांगिड़ ब्राह्मणों की उत्पत्ति एवं पांचाल ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन है।
  • ‘ वंश मल्लिका ‘ नामक ग्रंथ जिसके रचयिता प्रसिद्ध विद्वान पंडित मन्नूलाल शर्मा थे। यह पुस्तक भी लगभग 80 से 100 वर्ष पुरानी है। इसमें विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों के अनेक वर्गों का उल्लेख है। जैसे विश्वकर्मा ब्राह्मण , रथकार ब्राह्मण, पांचाल ब्राह्मण, जांगिड़ ब्राह्मण, धीमान ब्राह्मण , आचार्य ब्राह्मण, ओझा या झा मैथिल ब्राह्मण आदि। इस पुस्तक में इनकी शास्त्रो के अनुसार उत्पत्ति ,वंशावली एवं गोत्रावली का विस्तृत वर्णन है। इस पुस्तक में विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को वेदों के अनुसार एवं अन्य शास्त्रों के अनुसार सभी प्रकार के ब्राह्मणों के मूल कर्म का पूर्ण अधिकारी शास्त्रीय प्रधानों के आधार पर बताया गया है।
    चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के समय तक भी शिल्पी ब्राह्मणों को कष्ट पहुंचने पर दंड दिया जाता था, इनकी कचहरियां भी अलग थी। शिल्पज्ञ ब्राह्मणों की रक्षा करना राजा का विशेष कर्तव्य था।( History of Aryan rule in India, पृष्ठ 81 पर लिखा है)
    इसी पुस्तक के पृष्ठ १९-२० पर लिखा है कि शिल्पी ब्राह्मण यज्ञों के पुरोहित होते थे।
    इसी पुस्तक के पृष्ठ ७६ पर चाणक्य के लेख के आधार पर यह दिखाया है कि अन्य ब्राह्मण व शिल्पी ब्राह्मण एक साथ रहते थे।
    पूर्व दिशा में क्षत्रिय, पश्चिम में शूद्र, उत्तर में शिल्पज्ञ ब्राह्मण व अन्य ब्राह्मण रहते थे।
    Journal of India Art and Industry by Pulny Andy में लिखा है कि प्राचीन काल में शिल्पी ब्राह्मणों को देव ब्राह्मण कहते थे।
    अथर्ववेद को तो स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने शिल्प वेद कहा है।
    ऋग्वेद में शिल्पी ब्राह्मणों के विषय में निम्न है ;
    ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञा:।
    ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।
    -(स्वस्तिवाचनम् ऋग्वेद- मण्डल- ७,सूक्त-३५,मन्त्र-१५)
    अर्थ – हे परमात्मा ! पूज्य विद्वान शिल्प यज्ञ के कर्ता, जो विचारशील , सत्य विद्या अर्थात वेद निहित शिल्प विद्या के जानने वाले और ब्रह्मवेत्ता ज्ञानीजन उत्तम शिल्प विद्या और शिल्प शिक्षा के उपदेश से हम लोगों को निरन्तर उन्नति देवें। वे विद्वान उत्तम शिल्प विद्या द्वारा सर्वदा हमारी रक्षा करें।
    वाल्मीकि रामायण मे भी शिल्पकर्म को ब्राह्मण कर्म माना गया है ;
    चितोग्निर्ब्राह्मणैस्तत्र कुशलै: शिल्पकर्मणि।
  • (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड -१४/२८)
    अर्थात – शिल्पकर्म मे निपुण ब्राह्मणों ने इन ईंटो से अग्निकुंड बनाया।
    स चित्यो राजसिंहस्य सेचित: कुशलै: द्विजै:॥
  • (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग-१४)
    अर्थात – इस प्रकार राजसिंह महाराज दशरथ के यज्ञ मे कुशल ब्राह्मणों ने यज्ञवेदी (यज्ञकुंड) बनाये।
    यद्यपि , यज्ञवेदी अर्थात यज्ञकुंड शिल्पकर्म से ही निर्मित होता है अतः इन यज्ञकुंडो को निर्मित करने वाले ब्राह्मणों अर्थात शिल्पियों को द्विज अर्थात ब्राह्मण ही कहा गया है।
    वेदों में शिल्पी ब्राह्मणों के बोधक के रूप में विश्वकर्मा, आचार्य, शिल्पी , देवता , शर्मा, रथकार , तक्षा , स्थपती,वर्धकि, कर्मार आदि शब्द भी प्रयुक्त हुये है औऱ इन्हें वेदों के बहुत से मन्त्रों में इनकी ब्रह्मशिल्प विद्या के कारण इन्हें नमस्कार भी किया गया है। यजुर्वेद में ऐसा श्लोक आया है ;
    नमस्तक्षम्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः।
    कुलालेभ्य: कर्मारेभ्यश्च नमः॥
  • (यजुर्वेद अध्याय-१६, श्लोक-२७)
    रथकारों रथं करोतीति तक्षणो विशेषणम् एव कर्मारा: लोहकारा..॥ (उवट भाष्य)
    अर्थात – जो शिल्पी ब्रह्मशिल्प विद्या से रथों का निर्माण करते है उन्हें रथकार कहते है औऱ उस तक्षा का विशेषण ही है। अतः उस तक्षा (रथकार) को हमारा नमस्कार है। कर्मार कहते है लोहकार को अतः उसको भी हमारा नमस्कार है।
    भट्टोजि दीक्षित रचित व्याकरण के प्रसिद्ध ग्रँथ ‘ सिद्धांत कौमुदी ‘ के स्वरप्रकरण 61 से 71 के बीच 3811 में रथकार शिल्पी को ‘ ब्राह्मण ‘कहा गया हैं।
    ‘ रथकारो नाम ब्राह्मण: ‘ अर्थात रथकार ब्राह्मणों का एक नाम हैं।
    वर्षाऋतु में रथकार शिल्पी ब्राह्मणों (विश्वकर्मा ब्राह्मणों) को यज्ञ का विशेषाधिकार
    ‘ रथं करोतीति इति रथकार: ‘ अर्थात जो शिल्पी ब्राह्मण ब्रह्मशिल्प विद्या से दिव्य रथों के निर्माण करते है उन्हें रथकार शिल्पी ब्राह्मण कहते हैं। रथकार शिल्पी ब्राह्मणों का शास्त्रो में विशेष महत्व हैं इन्हे देवता तक कहा गया हैं। ऋग्वेद अथर्ववेद आदि वेदों में कई मँत्रो के देवता ऋभू देवता हैं जिन्हें शास्त्रो में रथकार भी कहा गया हैं। वेदों के एक प्रसंग में वर्णन आया हैं कि ऋभू देवताओं ने अर्थात रथकार शिल्पी ब्राह्मणों ने एक ऐसा अद्भुत रथ बनाया था जों आकाश, पृथ्वी औऱ जल में समानरूप एवं गति से विचरण करता हैं। आप लोग वेदों में ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में ऋभू सूक्त का अध्ययन कर सकते हैं जिसमें ऋभू देवताओं अर्थात रथकार शिल्पी ब्राह्मणों की महत्वता का अभूतपूर्व वर्णन है।
    व्याकरण शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ सिद्धांत कौमुदी के स्वरप्रकरण 61-71 में रथकार शिल्पियों को स्पष्टरूप से ब्राह्मण कहा गया हैं ;
    रथकारो नाम ब्राह्मण:
    अर्थात – रथकार नाम ब्राह्मणों का है।
    काशिकावृत्ति/षष्ठोऽध्याय/द्वितीयपाद में भी स्पष्ट रूप से ब्राह्मण की संज्ञा प्राप्त हैं।
    रथकारो नाम ब्राह्मणः
    अर्थात – रथकार नाम ब्राह्मणों का है।
    वेदांग कल्प के अंतर्गत बौधायन श्रोतसूत्र में रथकार शिल्पी ब्राह्मणों को अन्य ऋतुओ के साथ साथ वर्षा ऋतु में यज्ञ करने का विशेष अधिकार दिया है औऱ अन्य ब्राह्मणों को वसंत ऋतु में विशेष रूप से यज्ञ करने अधिकार दिया है औऱ क्षत्रियों को ग्रीष्म ऋतु में औऱ वैश्यों को शरद ऋतु में यज्ञ का विशेष अधिकार दिया है।
    प्रमाण देखें निम्न;
    अथात ऋतुनक्षत्राणामेव मीमाँ सा ऋतूनेवाग्रे व्याख्यास्यामोऽथ छन्दाँ सीति।
    वसन्ते ब्राह्मणोऽग्निमादधीत ग्रीष्मे राजन्यः शरदि वैश्यो वर्षासु रथकार इति॥
    -(बौधायनश्रौतसूत्रम्/प्रश्नः 24.16)
    उपर्युक्त, प्रमाणों से कुछ लोगों को ये शंका हो सकती हैं कि रथकार शिल्पी ब्राह्मणों को ब्राह्मण वर्ण से अलग से वर्षाऋतु में यज्ञ का अधिकार शास्त्रो में किस कारण दिया गया हैं। ‘ रथकार शिल्पी ‘ ब्राह्मण वर्ण के अन्तर्गत आते हुए भी एक विशेष ब्राह्मण वर्ग हैं जिन्हें विशेष रूप से वर्षाऋतु में यज्ञ का अधिकार दिया गया हैं। वैसे तीनों वर्णों में कोई भी किसी भी ऋतु में यज्ञ कर सकता हैं रथकार शिल्पी ब्राह्मण भी। लेकिन यहाँ पर संदर्भ चार प्रमुख ऋतुओं से है इसलिए इनका विभाजन करके विशेष अधिकार दिया गया हैं।
    वेदों में श्रेष्ठ वेद जिसे अथर्ववेद अर्थात ब्रह्मवेद कहा जाता है उसमें रथकार शिल्पी एवं कर्मार शिल्पी को धीवान अर्थात बुद्धिमान एवं मनीषी अर्थात विद्वान कहा गया है।
    ये धीवानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः । उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान् ॥
    – (अथर्ववेद/कांड-3/सूक्त-5/ मंत्र-6)
    अर्थात – हे पर्णमणे, ये जो धीवान अर्थात बुद्धिमान शिल्पी रथकार अर्थात जो दिव्य रथों का निर्माण करते हैं और कर्मारा अर्थात लौह आदि वैज्ञानिक ब्रह्मशिल्प कर्मो में जो मनीषी अर्थात विद्वान शिल्पी ब्राह्मण लोग लगे रहते है उनको परिचर्चा हेतु हमारे (राजा) समक्ष उपस्थित करें।
    यजुर्वेद में मेधावी एवं धैर्य पूर्ण कार्यों के लिए रथकार शिल्पी ब्राह्मण और तक्षा शिल्पी ब्राह्मण को उपयुक्त कहा गया है। रथकार एवं तक्षा को मेधावी एवं धैर्यवान कहा गया हैं।
    मेधायै रथकारं धैर्याय तक्षाणाम्… (यजुर्वेद – 30/6)
    अर्थात – बुद्धिमतायुक्त कार्य​ के लिए रथकार​​शिल्पी तथा धैर्य (युक्त कार्य​) के लिए तक्षा शिल्पी की सलाह लेनी चाहिए ।
    यजुर्वेद में रथकार,तक्षा एवं कर्मार शिल्पी ब्राह्मणों को नमस्कार करके उनका वंदन किया गया हैं।
    नमस् तक्षभ्यो रथकारेभ्यश् च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश् च वो नमो नमो… (यजुर्वेद – 16/27)
    अर्थात – हे तक्षाओ, रथकारों एवं कर्मारा शिल्पीयों आपको नमस्कार हैं।
    उपर्युक्त सभी प्रमाणों से रथकार, तक्षा औऱ कर्मारा शिल्पी ब्राह्मणों को वेद शास्त्रों में विशेष सम्मान दिया गया है उन्हें बुद्धिमान, मेधावी, धैर्यवान , मनीषी (विद्वान) कहां गया है। विशेष रुप से वेदांग ग्रंथ बौधायन श्रोतसूत्र में रथकार ब्राह्मणों को वर्षा ऋतु में विशेष रुप से यज्ञ का विशेषाधिकार दिया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि रथकार शिल्पी ब्राह्मणों का दिव्य रथों के निर्माण जैसे ब्रह्मशिल्प वैज्ञानिक कर्मों के अलावा ब्राह्मणों के षट्कर्म अर्थात यज्ञकर्म आदि कर्मों का भी अधिकार शास्त्रो के अनुसार वैदिककाल से प्राप्त है।

मत्स्य पुराण में वास्तुशिल्प के 18 उपदेष्टा ऋषियों का वर्णन है जिन्होने वैदिक कर्मकाण्ड के साथ वास्तु शिल्पकर्म का भी ज्ञान दिया। जिनका वर्णन इसप्रकार है ;
भृगुर त्रिवं शिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा।
नारदो नग्न जिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः।।
ब्रह्म कुमारो मंदीशः शैन को गर्ग एवं च।
वासुदेवोऽनिरुश्च तथा शुक्र बृहस्पति ।।
अष्टादशै से विख्याता शिल्प शास्त्रो पदेशकाः ।।

  • (मत्स्य पुराण -२५१/२-३-४)
    अर्थ :- मत्स्य रुपी श्री विष्णु भगवान् ने मनु को शिल्प पढाया है और अठारह शिल्प संहिता के रचने वाले मुनि श्रेष्ठ देव हैं 1. भृगु, 2. अत्रि, 3. वशिष्ठ, 4. विश्वकर्मा, 5. मय, 6. नारद, 7. वग्नजित, 8. विशालाक्ष, 9. इन्द्र, 10. ब्रह्मदेव, 11. कार्तिक स्वामी, 12. वन्दी, 13. शौनक, 14. गर्ग मुनि, 15. वासुदेव (कृष्ण), 16. अनिरुद्ध, 17. शुक्राचार्य, 18. बृहस्पति।
  • महीधर ने अपने वेद भाष्य में (चातुर्य) हुनर का नाम शिल्प कहा है।
    यथा-ऋक, साम अभिमाजी देवतयोः सम्बन्धिनी शिल्पे चातुर्ये लद् रुपे भवतः।। – (यजु- अ- 4, मंत्र- 9 – महीधर भाष्य)
    अर्थात् :- ऋग्वेद तथा सामवेद के ज्ञाता देवताओं (शिल्पी ब्राह्मण) के चातुर्य को सीखो।
    स्मृति धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणो के दस भेद उनके कर्मो के अनुसार होते है , जिसमें देवता ब्राह्मण , विप्र ब्राह्मण , द्विज ब्राह्मण , व्रात्य ब्राह्मण , शूद्र ब्राह्मण , चांडाल ब्राह्मण आदि है।
  • इससे यह स्पष्ट है की वैदिक काल में सभी ब्राह्मणों के लिये शिल्पकर्म अनिवार्य था , उस समय ब्राह्मणों में कोई भेद भी नहीँ था सभी ब्राह्मण के साथ साथ उनकी श्रेष्ठ योग्यता के अनुसार शिल्पी कहलाते थे , वैदिक गुरुकुलों में वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना ,शिल्प पढ़ना औऱ शिल्प पढ़ाना पाठ्यक्रम हुआ करता था। चौंसठ कलाओं में वास्तुकला सबसे प्रमुख कला होती थी , इसलिये वैदिक शास्त्रों में बहुत जगह ब्राह्मणों के सूचक के रुप में देवता , आचार्य , ब्राह्मण , विप्र , द्विज , शिल्पी , रथकार , तक्षा, स्थपती, मनीषी, धीमान , जांगीड, पाँचाल आदि शब्द प्रयोग हुये है सभी शास्त्रीय , तार्किक एवं लेखकों की पुस्तको के प्रमाणों से शिल्पकर्म एवं वास्तुकर्म ब्राह्मण कर्म सिद्ध होता है जो मनुष्य इन वैदिक , शास्त्रीय एवं तार्किक प्रमाणों को नहीं मानता है वो वेदों के अनुसार नास्तिक ही कहलाएगा , नास्तिकों वेद निंदक: |

संकलन एवं लेखकर्ता
पं. संतोष आचार्य विश्वकर्मा